Monika garg

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लेखनी कहानी -03-Jul-2023# तुम्हें आना ही था (भाग:-25)#कहानीकार प्रतियोगिता के लिए

गतांक से आगे:-


राजा वीरभान का यूं अचानक से चंद्रिका के लिए ये संदेश भेजना कि आज राज नर्तकी चंद्रिका दरबार में अवश्य हाज़िर होनी चाहिए ।ये बात कनक बाई को कुछ ज्यादा ही अखर रही थी क्योंकि राजा वीरभान जानते थे कि चंद्रिका इस समय ज्वर से पीड़ित हैं और दरबार तक नहीं आ सकती फिर भी ऐसा संदेश,जरूर रात्रि में चंद्रिका को किसी ने आते जाते हुए देख लिया है वरना कल तो राजा वीरभान उससे कह रहे थे,

"कनक बाई लगता है तुम राज नर्तकी चंद्रिका का ख्याल नहीं रखा रही हो सही से जो वो इतना बीमार हो गयी है।वो राज्य की धरोहर है ।राज धरोहर को सम्भाल कर रखना है तुम्हें। ऐसा करो मेहमानों के मनोरंजन के लिए हम एक और नर्तकी का बंदोबस्त करते हैं ताकि जब राज नर्तकी अस्वस्थ हो तो वो मनोरंजन कर दिया करेंगी नाच गा कर।"


इतनी बात कहने के बाद भी ये रुखा सा संदेश कि आज राज नर्तकी चंद्रिका दरबार में हाजिर होनी  चाहिए।


कनक बाई चंद्रिका के पास गयी और उसके माथे को हाथ लगाया तो देखा वो अभी भी बुखार से तप रहीं थीं।उस ने चंद्रिका को सारा वृत्तांत कह सुनाया तो चंद्रिका मुस्कुरा कर बोली

"मां तुम क्यों डरती हो जब प्यार किया है तो डरना किस बात का। हम चलेगी दरबार में और जो भी बात होगी उसका सामना करेंगे।" यह कहकर चंद्रिका उठकर नित्यकर्म के लिए चली गयी ।


नियत समय पर दरबार लगा ।सारे दरबारी और मंत्रीगण। दरबार में उपस्थित थे ।सारा दरबार खचाखच भरा था । क्योंकि मुकदमा ही इतना बड़ा था कि ये समझ ही नहीं आ रहा था कि किस के पक्ष में बोला जाए। कुछ सुमंत्र के चमचे थे तो कुछ राज नर्तकी चंद्रिका के दीवाने। बड़ी मुश्किल से चंद्रिका दरबार में हाजिर हुई क्योंकि ज्वर की अधिकता के कारण उससे चला भी नहीं जा रहा था। सुमंत्र ये देखकर हैरान रह गया कि जो कल देवदत्त के कक्ष में इतना हंस हंस कर बातें कर रही थी वो आज कैसे नौटंकी कर रही है आज तो वो ऐसे लग रही है जैसे पता नहीं कितने दिनों से बीमार है जब की वो पूरा श्रृंगार करके दरबार में हाजिर हुई थी।तभी देवदत्त के लिए भी पुकार पड़ी जैसे ही देवदत्त हाज़िर हुआ चंद्रिका के शरीर में जैसे प्राण लौट आये।यही हाल देवदत्त का भी था वो जब दरबार में आ रहा था तो बबुरी तरीके से खांस रहा था लेकिन जैसे ही चंद्रिका को देखा अपने सारे दुःख दर्द भूल गया।


राज वीरभान बोले," सभा में उपस्थित सभी सभासद आज इस दरबार में एक ऐसा मुक़दमा आया है जिसनू हमें उलझन में डाल दिया है ।हमें शिकायत मिली है कि राज नर्तकी चंद्रिका राज शिल्पी देवदत्त से प्यार करती है और वह उससे छिप छिपकर मिलने आती है महल में । चंद्रिका, क्या ये बात सत्य है?"


"जी महाराज, प्यार करना कोई पाप नहीं है ।"


"हम मानते हैं प्यार करना पाप नहीं है पर एक राज नर्तकी के लिए ये वर्जित है क्योंकि उसके जीवन पर उसका कोई अधिकार नहीं होता।वो राज्य की धरोहर होती है और यही नियम है ।"


चंद्रिका के प्रेमी और चाहने वाले सभी यही चाहते थे कि चंद्रिका उनकी आंखों के सामने ही रहे ।अगर प्यार करेंगी तो विवाह भी करेगी और फिर किसी की पत्नी होने के बाद वो उसे देखने का अधिकार खो देंगे इसलिए वे राजा वीरभान के स्वर में स्वर मिलाने लगे।अब चंद्रिका और। देवदत्त दोनों अकेले पड़ गये दरबार में ।


आपस में सलाह मशविरा करके राजा इस नतीजे पर पहुंचे कि राज नर्तकी को प्यार। करने का कोई अधिकार नहीं है इसलिए अगर भविष्य में वो कभी देवदत्त से मिलते हुए पकड़ी गयी तो सूली पर चढ़ा दिया जाएगा।


चंद्रिका रोते हुए गिड़गिड़ाने लगी,

"महाराज आप मुझ से ये राज नर्तकी की उपाधि वापस ले लीजिए ।पर मुझे मेरे देवदत्त से अलग मत कीजिए नहीं तो मैं एक पल जिंदा नहीं रह पाऊंगी।"


तभी चंद्रिका की मां कनक बाई भी दोनों हाथ जोड़ कर जोर जोर से रोते हुए कहने लगी,"महाराज ,इन दोनों प्यार करने वालों को जुदा मत करो ।इन का प्यार जन्म जन्मांतर का है अगर इन्हें कुछ हो गया तो प्रलय आ जाएंगी। क्योंकि मैं साक्षी हूं इनके पवित्र प्रेम की। महाराज आप ऐसा ना करें।"


पर उनकी एक भी सुनवाई नहीं हुई  ।राजा वीरभान को भी ये फैसला कुछ कुछ उचित लग रहा था क्योंकि चंद्रिका अगर प्यार के चक्कर में रहेगी तो वो अपना कार्य सही ढंग। से नहीं कर पायेंगी।


अब उन दोनो पर ये पाबंदी लगा दी गयी कि वो एक दूसरे से मिलना तो दूर की बात देखेंगे भी नहीं । जहां राज नर्तकी चंद्रिका होगी वहां देवदत के आने की मनाही होगी।


कनक बाईं और चंद्रिका दरबार बर्खास्त होने के बाद लाल हवेली लौट तो आई पर चंद्रिका के तो जैसे इस फैसले से प्राण ही निकल गये।कैसे…..कैसे….कैसे वो अपने प्यार को देखें बगैर रह सकेंगी।

कनक बाई को भी लग रहा था कि चंद्रिका देवदत्त के बगैर बस कुछ ही दिनों की मेहमान होगी इस धरती पर ।


पर दोनों देवदत्त और चंद्रिका उस फ़ैसले के साथ बिल्कुल बुझे बुझे रहने लगे। देवदत्त का किसी भी काम में मन ही नहीं लगता था।यही हाल चंद्रिका का था । दरबार में अचानक नाचते-नाचते आगे की नृत्य मुद्राएं भूल जाती थी।


दोनों अपने अपने दिन गुजार रहे थे बस मिट्टी की मूरत सी बनकर।

एक दिन राजकुमारी कजरी देवदत्त के कक्ष में आई और बोली,"अब कब तक यूं अफसोस करते रहोगे तुम चंद्रिका का ।तुम राज शिल्पी हो तुम्हें एक नहीं हजार चंद्रिका मिलेंगी।कभी। मेरी तरफ भी नजरें उठाकर देखा करो । क्या मैं तुम्हारी प्रेरणा नहीं बन सकती।"


देवदत्त ने उसकी ओर देखकर मुस्कुराते हुए मन ही मन कहा,"तुम और प्रेरणा…..हूमममम । शक्ल देखी है आईने में बाप के पैसों का घमंड  ही पूरा नहीं होता।"

तभी कजरी बोली,*देव मेरी एक मूर्ति बनाओ ना।"



देव ने मन ही मन कुछ ठाना और हाथ में छैनी हथौड़ी लेकर पत्थरों की ओर चल पड़ा।


कहानी अभी जारी है………

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